हमारे देश में अगर कोई व्यक्ति अपराध करता है तो उसे कानूनी रूप से सजा देने का प्रावधान किया गया है। जिसके तहत अपराधी को सुधारगृह या यूं कहें कि जेल में बतौर सजा के लिए भेज दिया जाता है। लेकिन जब इन्हीं सुधारगृहों में अपराधिक गतिविधियों को अंजाम दिया जाने लगे तो फिर क्या ही कहा जाए? आजकल भारतीय जेलों में हिंसा, मारपीट, जेल कर्मियों द्वारा कैदियों को नशे व मोबाइल फोन की सप्लाई जैसी घटनाएं आएं दिन मीडिया अखबारों की सुर्खियां बन रही है। बावजूद इसके इन अपराधों पर कोई लगाम नहीं लग रहा है। आए दिन पुलिस कस्टड़ी में मौत की खबरें आम हो चली है। लेकिन इन घटनाओं पर कोई लगाम लगता नहीं दिख रहा है। ऐसे में सवाल कई है, लेकिन जवाब कौन तलाशेगा? यह भी अपने आपने एक बड़ा सवाल है। वैसे कुछ सवालों की बात करें तो क्या अपराधियों के कोई मौलिक अधिकार नहीं होते है? क्या उनकी जान की कोई कीमत नहीं होती है? ये ऐसे सवाल है जिनके जवाब मिल पाना लगभग असंभव है। देखा जाएं तो जब कोई आम व्यक्ति अपराध करता है तो उसे पुलिस द्वारा कानूनी रूप से सजा का प्रावधान है लेकिन जब पुलिस अधिकारी ही अपराध करे तो उसे सजा मिल पाना असंभव है क्योंकि पुलिस द्वारा अपराध किए जाने पर उसे खुद अपने खिलाफ जांच करने के लिए कहा जाता है या उसी डिपार्टमेंट से जांच कराई जाती है, अब सोचने वाली बात यह है कि इस कलयुग में भला कौन राजा हरिश्चंद्र? जो स्वयं को गलत ठहराएगा और निष्पक्ष जांच कर स्वयं को सजा देगा।
गौरतलब हो कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की माने तो पिछले एक दशक में 17 हजार 146 लोगों की मौत पुलिस हिरासत में हुई है। मतलब रोजाना करीब 5 लोग बेमौत मार दिए गए है। वहीं सबसे चौकाने वाली बात तो यह है कि 92 फीसदी मौत 60 से 90 दिनों वाली न्यायिक हिरासत में हुई । देश में पिछले 20 सालों के आंकड़ों पर नजर डालें तो 1888 लोगों की मौत पुलिस हिरासत में होने की बात एक हालिया रिपोर्ट में कही गई है, जबकि इन मामलों में मात्र 26 पुलिसकर्मियों को ही दोषी ठहराया गया है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार देशभर में पिछले 20 सालों में पुलिस हिरासत में हिंसा को लेकर 893 पुलिसकर्मियों पर मामले दर्ज किए गए। लेकिन आश्चर्य की बात है कि करीब 26 पुलिसकर्मी ही दोषी ठहराये गए है। इसके अलावा गत वर्ष की ही बात करे तो करीब 76 लोगों की मौत पुलिस हिरासत में हुई, लेकिन किसी भी पुलिसकर्मी को दोषी नहीं ठहराया गया है।
वैसे हमारे देश की राजनीति भी गजब चीज है गुरू …! कहने को तो यहां हर बात पर शोर मचाया जाता है लेकिन जैसे ही राजनीतिक लाभ साध लिया जाता है सारी संवेदनाएं मर जाती हैं। सारे मानवाधिकार संगठन मौन धारण कर लेते है। हमारे देश मे यूं तो तमाम एजेंसियां और संगठन समय-समय पर बनाये जाते रहे है, लेकिन ये संगठन भी तब ही हरकत में आते है जब या तो मामला हाई प्रोफाइल हो या फिर राजनीतिक लाभ हो, वरना तो तमाम एजेंसियां बस नाम भर की ही रह जाती है। सारे नियम कानून धरे के धरे रह जाते है। वैसे सच कहें तो हमारे देश में न्याय भी राजनीतिक आधार भी तय किए जाते है। जिन मामलों में राजनीतिक लाभ न हो वे फाइल कहा दफन हो जाती यह कोई नहीं जानता। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने कहने को तो राज्य सरकार व केंद्र शासित सरकारों को यह निर्देश दे रखें है कि पुलिस हिरासत में हुई मौत की सूचना आयोग के संज्ञान में दे पर वास्तविकता इसके उलट ही है।
देश में पुलिस हिरासत में मौत के मामले कोई नई बात नही है। हाल के दिनों में भारत में हिरासत में मौत के कई खौफनाक मामले सामने आए हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश के एक पुलिस थाने में एक युवक अल्ताफ की मौत ने बीते दिनों बवंडर खड़ा कर दिया। हालांकि पुलिस का दावा है कि 22 वर्षीय मुस्लिम व्यक्ति ने जैकेट के हुड के ड्रॉस्ट्रिंग का उपयोग करके जमीन से सिर्फ दो फीट यानी 61 सेंटीमीटर ऊपर वॉशरूम में एक नल से फांसी लगा ली। लेकिन अल्ताफ के परिवार का आरोप है कि उसकी हत्या कर दी गई और परिजनों ने मांग की है कि अल्ताफ की मौत की जांच केंद्रीय जांच ब्यूरो यानी सीबीआई से कराई जाए। अब सीबीआई से जांच होगी तब होगी, लेकिन अभी तो एक जिंदगी सत्ता और सामाजिक वर्ग के जहरीले खेल की वजह से चली गई। उसका जिम्मेदार कौन? भारतीय संविधान का अनुच्छेद-21 ही दैहिक स्वतंत्रता की बात करता है और उसी संवैधानिक और न्यायिक तंत्र में ऐसे किसी की जान चली जाए, फिर क्या ही कहने। वैसे हालिया दौर में हिरासत में मौत का यह पहला मामला नहीं। इसके पहले भी हिरासत में मौत के ऐसे और भी कई मामले सामने आए हैं। जिन्होंने देश को झकझोर कर रख दिया है। पिछले साल जून में 58 वर्षीय पी. जयराज और उनके 38 वर्षीय बेटे बेनिक्स को तमिलनाडु में अपने स्टोर को निर्धारित समय से पहले खुला रखकर कोविड-19 लॉकडाउन नियमों का कथित रूप से उल्लंघन करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। दो दिन बाद पुलिस की कथित बर्बरता से उनकी मौत हो गई। उनकी मौत को लेकर देश भर में बढ़ते आक्रोश ने हिरासत में हुई मौतों पर रोशनी डाली और पुलिस की जवाबदेही की मांग को फिर से दोहराया। वहीं इस क्षेत्र में काम करने वाले नागरिक अधिकार वकीलों, गैर सरकारी संगठनों और पूर्व पुलिस अधिकारियों का मानना है कि न्यायिक हिरासत में सभी मौतें यातना या मार-पीट का परिणाम नहीं होती हैं और कुछ मौतों के
पीछे बीमारियों या चिकित्सकीय लापरवाही को भी जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। लेकिन पुलिस हिरासत में लोगों के साथ हिंसा होती है, यह सही है।
वहीं अब हम फिर से यूपी के एक थाने में अल्ताफ नाम के युवक की हुई मौत के मुद्दे पर वापस आए तो इस मौत ने बीते दिनों एक सियासी तूफान खड़ा कर दिया। एक तो यू पी में चुनावी माहौल ऊपर से मुस्लिम युवक की हत्या होना, यह अपने आपमें एक बड़ी घटना साबित हुई और यह घटना भले ही मीडिया जगत की सुर्खियां बनी हो पर क्या इस घटना के बाद यह कहा जा सकता है कि पुलिस हिरासत में हुई मौत की निष्पक्ष जांच होगी और दोषियों को सजा मिलेगी? इसका जवाब ना में ही मिलेगा क्योंकि ऐसा कोई एक राज्य नहीं जहां इस प्रकार की घटनाएं घटित हो रही हो, बल्कि तमाम राज्यों में इस तरह की घटनाएं आम बात हो गई है। एनएचआरसी 2020 में इंडियास्पेंड की रिपोर्ट के हवाले से यह बात कही गई है कि इस साल पुलिस हिरासत में 51 से अधिक लोगो की मौत हुई। पुलिस हिरासत में हत्या और उत्पीड़न के खिलाफ कोई ठोस कानून न होने के कारण सरकार की अनुमति लेनी होती है जिससे कहीं न कहीं न्याय प्रक्रिया भी प्रभावित होती है। ऐसे मामलों में मानवाधिकार आयोग ने 24 घण्टो में रिपोर्ट पेश करने की बात तक कही है, लेकिन अधिकतर मामलों में ऐसा नहीं होता है। वैसे हमारे देश मे कैदियों के साथ भी कम दुर्व्यवहार नहीं होता है, जेल में सुविधाएं भी हैसियत के मुताबिक मुहैया कराने का चलन बढ़ गया है। लेकिन एक सच यह भी है कि हिरासत में मौत के मामले में कोई मजबूत कानून नहीं बनाया गया है। अलबत्ता पुलिस सरकार के दवाब में काम करती है इस बात से भी नकारा नहीं जा सकता है, लेकिन सभी बातों का आखिर में लब्बोलुआब एक ही है कि पुलिस को यह बात नहीं भूलना चाहिए कि वह आम नागरिक की सुरक्षा के लिए है न कि नागरिकों पर अत्याचार के लिए…!