सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को सेवानिवृत्त सैनिकों के लिए लागू वन रैंक वन पेंशन की नीति को सही ठहराया। शीर्ष अदालत ने कहा कि इसमें कोई संवैधानिक कमी नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि नीति में 5 साल में जो पेंशन की समीक्षा का प्रावधान है वह बिल्कुल सही है। इसी प्रावधान के तहत सरकार एक जुलाई 2019 की तारीख से पेंशन की समीक्षा करे। अदालत ने सरकार से सेवानिवृत्त सैनिकों को तीन महीने में बकाया का भुगतान करने के लिए कहा। बता दें कि याचिकाकर्ता भारतीय भूतपूर्व सैनिक आंदोलन (आईईएसएम) ने सरकार के साल 2015 के वन रैंक वन पेंशन नीति के फैसले को चुनौती दी थी। इसमें उन्होंने दलील दी थी कि यह फैसला मनमाना और दुर्भावनापूर्ण है क्योंकि यह वर्ग के भीतर वर्ग बनाता है और प्रभावी रूप से एक रैंक को अलग-अलग पेंशन देता है। दरअसल, केंद्र सरकार ने 7 नवंबर 2015 को वन रैंक वन पेंशन योजना की अधिसूचना जारी की थी जिसमें कहा गया था कि इस योजना की समीक्षा पांच वर्षों में की जाएगी लेकिन भूतपूर्व सैनिक संघ की मांग थी कि इसकी समीक्षा एक साल के बाद हो। इसी बात को लेकर दोनों पक्षों के बीच मतभेद चल रहा था। जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, सूर्यकांत और जस्टिस विक्रम नाथ की बेंच ने कहा कि वन रैंक वन पेंशन पर केंद्र के फैसले में कोई दोष नहीं है और सरकार के नीतिगत मामलों में हम दखल नहीं देना चाहते हैं। अदालत ने निर्देश दिया कि सरकार एक जुलाई 2019 की तारीख से पेंशन की समीक्षा करे। तीन महीने में बकाया का भुगतान करे। भूतपूर्व सैनिक संघ द्वारा दायर इस याचिका में भगत सिंह कोश्यारी समिति द्वारा पांच साल में एक बार आवधिक समीक्षा की वर्तमान नीति के बजाय एक स्वचालित वार्षिक संशोधन के साथ एक रैंक-एक पेंशन को लागू करने की मांग की गई थी। बता दें कि 2014 में सत्ता में आते ही केंद्र की भाजपा सरकार ने रिटायर सैनिकों के लिए वन रैंक वन पेंशन योजना लागू करने की घोषणा की थी। वन रैंक-वन पेंशन स्कीम के तहत अलग-अलग समय पर रिटायर हुए एक ही रैंक के दो सैनिकों की पेंशन राशि में बड़ा अंतर नहीं होगा। भले ही वे कभी भी रिटायर हुए हों। इससे पहले स्थिति यह थी कि 2006 से पहले रिटायर हुए सैनिकों को कम पेंशन मिलती थी, यहां तक कि अपने से छोटे अफसर से भी कम पेंशन उनके खाते में आती थी। इस व्यवस्था को लेकर रिटायर सैनिकों में काफी आक्रोश था और वे लंबे समय से एक समान पेंशन की मांग भी कर रहे थे। इस व्यस्था से मेजर जनरल से लेकर कर्नल, सिपाही, नायक और हवलदार तक प्रभावित थे। वर्तमान में लगभग 25 लाख रिटायर्ड सैनिक हैं। सैनिकों की मांग थी कि जो अफसर कम से कम 7 साल कर्नल की रैंक पर रहा हो, उसे समान रूप से पेंशन मिले। ऐसे अफसरों की पेंशन 10 साल तक कर्नल रहे अफसरों से कम नहीं होगी, बल्कि उनके बराबर होगी। 2008 में पूर्व सैनिकों ने इंडियन एक्स सर्विसमैन मूवमेंट (आईएसएम) नाम से एक संगठन बनाकर लंबे समय तक संघर्ष भी किया। दिल्ली के जंतर-मंतर पर लगातार धरने-प्रदर्शन किए गए। फौजियों की मांग थी कि उन्हें भी 60 साल पर रिटायर किया जाए। सैनिकों को 33 साल पर ही रिटायर कर दिया जाता है और उसके बाद सारा जीवन उन्हें पेंशन पर ही गुजारना पड़ता है जबकि अन्य कर्मचारी 60 साल तक पूरी तनख्वाह पाते हैं। फौजी सिर्फ इतना ही चाहते थे कि छठे वेतन आयोग को लागू करते हुए समान पद और समान समय तक सर्विस कर चुके फौजियों को एक समान पेंशन दी जाए, चाहे दोनों किसी भी साल में रिटायर हुए हों। कुछ राज्य सरकारों ने भी सैनिकों की इस मांग का समर्थन किया था। यह आंदोलन इतना तेज हुआ कि पूर्व सैनिकों ने अपने खून से पत्र लिखकर राष्ट्रपति को ज्ञापन दिया और हजारों सैनिकों ने अपने मैडल तक वापस कर दिए। रिटायर सैनिकों में समान पेंशन की मांग लंबे समय से है. इतिहास के पन्नों को पलटा जाए तो पता चलता है कि 1973 तक सशस्त्र बलों में वन रैंक, वन पेंशन योजना थी और उन्हें अन्य कर्मचारियों से ज्यादा वेतन मिलता था लेकिन 1973 में आए तीसरे वेतन आयोग ने सैनिकों की तनख्वाह आम लोगों के समान कर दी थी। 2008 में पूर्व सैनिकों ने इंडियन एक्स सर्विसमैन मूवमेंट (आइएसएम) नाम से एक संगठन बनाकर वन रैंक, वन पेंशन की मांग को लेकर एक बड़ा आंदोलन किया था। दिल्ली के जंतर-मंतर पर यह आंदोलन लगातार 85 दिन चला था। पीएम नरेंद्र मोदी के आश्वासन के बाद धरना समाप्त हुआ था। सितंबर, 2013 में लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान बीजेपी के पीएम पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने सत्ता में आने पर वन रैंक, वन पेंशन योजना लागू करने का वादा किया था।